बचपन की बस्ती में मेरा एक अनोखा संगी था
काला मोटा ज़बरदस्त हिम्मती नाम बजरंगी था
दरबे-से घर में रहता था बिरादरी का भंगी था
कभी लपटता कभी डपटता कुछ नेही कुछ जंगी था
मैं था उसका हृदय जानता कभी न उससे डरता था
उसके साथ सदा सारी बस्ती में मुक्त बिहरता था
तुंग शृंग पर चढ़ता था, खाई में कभी उतरता था
उसकी अगुआई में दिनभर चरम चकल्लस करता था
काला अच्छर भैंस बराबर मेरा गुरु अलबेला था
मैं पंडित-कुल-दीपक उसका परम समर्पित चेला था
उसके साथ बड़ा सुख पाया, दुख-दर्दों से खेला था
बीच धार में भेला ठेला गहन सरोवर हेला था
वही आज दुनियादारी की दुश्वारी से ऊब गया
संग छोड़कर जीवन का प्यारा मलंग मनसूब गया
भग्न भीत-सा भहराकर वह चट्टानी महबूब गया
मुझे तैरना सिखलाकर खुद बीच भँवर में डूब गया