एक विशाल वट वृक्ष के पास
खड़ा है
शब्दों का रसिया
अपने विचारों पर मोहित
जुगाली करता
कल्पनाओं की
सोचता----
वट वृक्ष उसके अन्दर है
या वह वट वृक्ष के अन्दर
दरअसल वह कहीं नहीं है
शब्दों को घसीटकर
हाँफता
झुँझलाता
पहुँचाता है वट वृक्ष के पास
और उनकी रस्सियाँ बटकर
फेंकता कमन्द
जा बैठता फुनगी पर
अब तो
वट वृक्ष उसके नीचे है
और वह ऊपर
बहुत ऊपर
शिखर पर
यह सोच-सोचकर
वह तालियाँ बजाता है
कोई नहीं आता जब
तो अचानक
हाथों की जगह
उसकी ज़ुबान
कुतरने लगती है
आसमान को
वट वृक्ष खिलखिला रहा है