माँ बताओ तो
जब तुमने मेरे पैरों में तेल लगाया था
नहलाकर जब काला टीका लगाया था
कान में दुआओं के मंत्र पढ़े थे
तो तुमने जाना था
कि पाँव में कितने छाले पड़ेंगे
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पापा बताओ तो
जब तुमने मेरा दाखिला करवाया
जब तुमने अन्ताक्षरी में मुझे जिताया
जब तुमने मुझमें अनेक संभावनाएं देखीं
एक इंजेक्शन लेते वक़्त मेरा सर सहलाया
तो क्षणांश को भी तुमने जाना
कि नुकीले पत्थर पर चलकर
मेरे आंसू सूख जायेंगे
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माँ पाँव तो तेरे भी लहुलुहान हुए
फिर पांवों में कभी सूई चुभाकर क्यूँ नहीं देखा
क्यूँ नहीं मुझे अभ्यस्त बनाया
क्यूँ झालरवाली फ्रॉक पहना
मुझे गुड़िया कहा ?
मैं तो खुद को यही मान बैठी न !
...
पापा तुम तो मनुष्य की सर्प नीति से वाकिफ रहे
जिनका तुमने स्वागत किया
उनका छल देखते रहे
सूली पर एक नहीं कई बार चढ़ाये गए
फिर तुमने बताया क्यूँ नहीं
अच्छाई का सिला सर्प दंश सा विषैला होता है
काटना ना सही
फुफकारना तो सिखाया होता
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नीति उपदेश ने क्या दिया तुमदोनों को
हमारे सिवा तुम्हें कौन जानता है
और यह पहचान भी आखिर कब तक !