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बदला / मंगलमूर्ति

ज्यादा जीने की
ख़्वाहिश ही क्यों देते हो
जब ज्यादा जीने नहीं देते?
और मरने की ख़्वाहिश
इतनी देते हो पर
मरने भी कहाँ देते हो -
उलटा रवैया है तुम्हारा
सब का सब
 
जीने वाले को मरना होता है,
वहीं मरने वाले को जीना ही है
आराम से जीनेवाले को जीने
और मरनेवाले वाले को मरने देने में
तुम्हारा क्या जाता है?
 
क्यों इतना घालमेल फैला रखा है तुमने,
समझ में नहीं आता
आदमी को क्या अपने जीने-मरने की
आज़ादी का भी हक़ नहीं?
 
जीने में लाख मुश्किलें,
तो मरने में उससे भी ज्यादा
दुनिया का गोरखधंधा
क्या इसीलिए बनाया तुमने?
हर कदम पर मुश्किलें
खड़ी करने के लिए ?
आदमी को बनाया बस
मुश्किलों से जीवन भर
लड़ते रहने के लिए?
 
क्षण भर का सुख क्या देते हो
कि तुरत कोई न कोई बखेड़ा
खड़ा कर देते हो;
अब सुख क्या भोगोगे,
लो पहले इस बखेड़े को झेलो

मुझे तो लगता है,
तुम आदमी को ज़िंदगी
या मौत नहीं देते,
उससे कोई बदला निकालते हो
 
वह बेचारा परेशान,
हाथ जोड़ता है,
पांव पड़ता है,
और तुम तो बस
उसके पीछे ही पड़े रहते हो
समझ में नहीं आता
तुम्हें भगवान किसने बनाया
ज़रूर उसने भी तुमसे
कोई बदला निकाला होगा