बनारस को बसना था
कोशी और गंगा के संगम के पास
जहां नर्तन में सती के कटि से
गिरा था हार
और बसा कटिहार
इसीलिए आश्रम बना
इसीलिए तप करते रहे थे
महाराज वशिष्ठ
बटेश्वर स्थान में, कहलगाँव के पास
कोशी के स्वभाव पर
भरोसा नही था गंगा को
बिठूर और नैमिशारण्य ने रचा व्यूह
नापी के वक़्त ज़रा आगे सरक गई गंगा
नौ हाथ कम पड गई ज़मीन
और यहाँ आ गई
भरोसा किया अस्सी पर
वरूणा पर भरोसा किया
और बसी
वरूणा और अस्सी के बीच
आपने देखा है
पूछा कभी आपने
कि इस तरह क्यो बिलख रही है
आज अस्सी
आपने सोचा कभी
कि कहाँ गई शान्त कछार वरूणा की
हर अस्सी और हर वरूणा के साथ है गंगा
हर अस्सी से पहले और हर वरूणा के बाद भी है गंगा
वरूणा और अस्सी का गुस्सा,
वरूणा और अस्सी की करूणा के साथ
बनारस में
हर आदमी के भीतर बहती है गंगा
यह मिथको के टूटने का समय है