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बर्फ की झील / अज्ञेय

चट-चट-चट कर सहसा तड़क गये हिमखंड जमे सरसी के
तल पर :
लुढ़क-लुढ़क कर स्थिर...वसन्त का आना
-यद्यपि पहले नहीं किसी ने जाना-
होता रहा अलक्षित।

नयी किरण ने छुए श्रृंग : हो गये सुनहले
बहते सारे हिमद्वीप। हाँ, गाओ,
'हेम-किरीटी राजकिशोरों का दल
नव-वसन्त के अभिनन्दन को मचल रहा है।'

गाओ, गाओ, गान नहीं झूठा हो सकता!
गाओ! पर ये हेम-मुकुट हैं केवल :
दूर सूर्य के लीला-स्मित से शोभन कौतुक-पुतले।

नीचे की हिमशिला पिघल कर जिस दिन स्वयं मिलेगी सरसी जल में
नव-वसन्त को उस दिन, उस दिन मेरा शीश झुकेगा!
क्योंकि तपस्या चमक नहीं है : वह है गलना :
गल कर मिट जाना-मिल जाना-
पाना।

कोपेन हागेन, 17 जुलाई, 1955