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बसंत! / सरस्वती माथुर

बसंत!
तुम मेरे समक्ष रख दो फूलों की गंध
और सौंप दो इंद्रधनुषी आकाश को
एक नया वर्तमान
इस सतरंगी वर्तमान को
मैं कल्पना की सीमाओं में आबद्व कर
आकांक्षाओं के पुष्प चढाऊँगी
फिर
मथ कर सागर मन का
इस बदलती दुनिया में
रम जाऊँगी
क्योंकि अभी तो मैं निर्वासित हूँ
शंकित भी हूँ
अपने भीतर की चुप्पी से
इसलिए निरुद्देश्य अहर्निश
भटक रही हूँ
तलाशती
अपने बसंती सपनों के घरौंदे