यह मेरा बोझलपन ही था
अत्यंत दुर्वह
चाहकर भी तैर नहीं पायी
पानी की तहों पर
डूबती रही हूँ
बेजान बोझ की तरह
जब कभी
अपनेपन का ज्वार
उमड़ा है मेरी ओर
बहते रेले को सागर मान
मैने मान ली है हार
छोड़ दिया है
किनारों को
और हर बार
वह पानी
अत्यंत पारदर्शी हो उठा है
अत्यन्त निस्पृह
मुझमें
छन
छनकर
क्या मैं केवल पैमाना थी
गहराई मापने के लिए
ये उमड़ते बहाव
कौन उबर पाया है इनसे
और मैं
बहती रेत
जिसमें उगती नहीं जड़ें
बहती हूँ
हर बहाव में
पटकी जाती हूँ
अनजान बियावान
बीहड़ किनारों पर
सुलगती हूँ
तपती हूँ
बालू कणों में
और जीती हूँ
बहते पानी के सँग
क्या कोई भी पानी
नहीं ऐसा जो मुझे
कर दे मुक्त
बोझिलपन से
या मान लूँ यही
कि सूखे बियावान ही
मोक्ष हैं
मेरा
1984