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बहती हवा / भरत प्रसाद

पल-पल, छिन-छिन
बरस-बरस से
युगों-युगों से
धड़क रहा दिल
कारण इसका
जाने कौन ?

साँस-साँस पर
मानव निर्भर
जन्म तभी,
जब मिलता जीवन
मृत्यु तभी
जब होते नष्ट
सृष्टि के ये छोर जुड़े हैं
एक सूत्र से
वह क्या है ?

वह है बहती हवा
जिसे ही
बड़ी पुरानी पृथ्वी ने
आदिकाल के
निर्जन युग में
प्रसव-पीर के बाद
सभी को
साँस रूप से सौंपा है
जीते जिस पर जीवन भर
ये ख़ूब हमें मालूम
मगर हम
बड़े मज़े से
सूख-सुविधा के
सुखद जाल में
जानबूझकर
पूरा फँसकर
ज़हर घोलते आसमान में
धुआँ भरते ।

जैसे हम ही,
जीवन की डाली पर बैठे,
काट रहे हैं जीवन को
अरे कहीं, दुर्गंध-युक्त विष-गैस
न ले-ले जगह
जहाँ है
वायु रूप बहता जीवन ।

नहीं तो,
और नहीं तो
क्षण-क्षण में ही
गली-गली में,
चौराहों पर,
नगर-नगर में, महानगर में
हा-हा करती
मौत मचेगी,
क़दम-क़दम पर
इस धरती पर ।

सब जीव-जन्तु
पशु-पक्षी और
मनुश्यों के भी
पूर्ण-नाश का ताण्डव होगा ।