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बहनें / राजेश्वर वशिष्ठ

बहनें मुझे रोज़ याद नहीं आतीं
जैसे याद नहीं आता दुनिया में अपना होना
जीवन और मृत्यु के बीच
एक पुल बनाए रखने के लिए
लगातार साँस लेना

बहनें मुझे याद आती हैं त्यौहारों पर
देवियों और देवताओं की तरह
सुबह-सुबह एक अनुष्ठान की तरह
उनसे पूछता हूँ उनके हाल-चाल
दोहराता हूँ कुछ बहुत घिसे-पिटे वाक्य
प्रणाम, नमस्कार होता है उनके परिवारजनों से
और बहनें फूल कर कुप्पा हो जाती हैं

हर प्रश्न के उत्तर में
सुनाई देती है उनकी खिलखिलाहट
वे कोई शिकायत नहीं करतीं
अपने घर परिवार और ज़िन्दगी के बारे में
वे जानती हैं सूर्य से अलग होने के बाद
कितनी विशद दूरी होती है सौरमण्डल के ग्रहों में
सबको घूमना ही होता है अपनी परिक्रमा में
अपनी अपनी धुरी पर घूमते हुए

वे बड़े-बड़े आग्रह नहीं करती भाई से
बार-बार मना करती हैं कुछ भी लेने से
वे नहीं चाहतीं
कोई भी जान पाए यह राज़
कि भाई की झोली में
देने को कुछ भी नहीं है
मीठे बोलों के सिवाय

वे नहीं चाहतीं भाई की आँखों में दिखें
विवशता के आँसू
उन क्षणों में उनमें प्रवेश कर जाती है
माँ की आत्मा
भाई और उसके परिवार पर
लुटाते हुए असंख्य आशीर्वाद

वे बदल कर भूमिका
चुपचाप सँभाल आती हैं
बूढ़े माता-पिता को
झूठ-मूठ सुना देती हैं
उन्हें भाई की व्यस्तता की कहानियाँ
वे घर के किसी कोने में
ढूँढ़ती हैं अपना अतीत
जिसे वे रख कर भूल गई थीं
स्वर्ण-मुद्राओं की तरह

उन क्षणों में
भगीरथी हो जाती हैं बहनें

बहनों,
आज स्नेह और सम्मान से
याद कर रहा हूँ तुम्हें
साथ में लिए हुए उस विश्वास को
जो तुमने चुपके से डाल दिया था
मेरी खाली जेब में
क़ीमती सिक्के की तरह

तुम्हारा होना ही आश्वस्ति है
सूर्य और आकाशगंगा के सम्बन्धों की !