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बांध / जोशना बनर्जी आडवानी

कितना बांधा जा
सकता है खुद को

खुल जाने से ठीक पल भर पहले
सुन लिये जाने के ठीक बाद और
चरम पर पहुँचे अभिनय के दौरान

बंध जाती हैं कसकर भींची मुठ्ठियाँ
बंध जाते हैं दोनो हठीले कानो के पर्दे
बंध जाती हैं अवाक निर्वस्त्र भावशून्यता

बंध बंध कर हम बंधक बांध बन चुके हैं
बंधा हुआ है नवकपोल इच्छाओं का तट
हलक मे बंधी पड़ी है मुर्दाशान्ति लिये प्यास