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बाज़ीगिरी / चंद्र रेखा ढडवाल


कुछ भी कह कर
कुछ भी करके
पल दो पल में
हँस पड़ना निश्चिंत
भाता था मुझे बहुत
कहूँ ! कैसा लगता है
अब वह उपक्रम तुम्हारा
बेसन में लिपटी
मछली को
उबलते तेल में छोड़
बीड़ी पीते
 तलैया का-सा


बेसन के भीतर छिपी
मछली के साथ
कब सिकुड़ता
कब फटता है वह.