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बाल परिचायक / मुकुटधर पांडेय

लॉज के है परिचायक बाल
काश होते लक्ष्मी केलाल
बीत पाया न अभी कैशोर
टूट पाए न दूध के दाँत
उनींदी आँखों में है तात्
काट दी तुमने सारी रात।

हाथ में ले उशीर का व्यजन,
छतों पर सोते हैं श्रीमान्
मुक्त नभ के नीचे भी क्यों न
छटपटाते हैं उनके प्राण
कुन्द घर के अन्दर बेहाल,
भूमि पर पड़े चीथड़ा डाल।

मिला है तुमको कितना रूप
काश, तुम पाते उसे सम्हार
असित अलकों का जाल निहार
अलि-अवलि हो जाती बलिहार

मुख-कमल हुआ तुम्हारा म्लान
ग्रीष्म में उस पर पड़ा तुषार
लॉज की रखते हो तुम लाज
लाज भी लजा रही है आज।