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बिछोह / कुलदीप कुमार

मिलना और बिछुड़ना
संयोग की बात है

जैसे अन्धड़ में उड़ता हुआ कोई पत्ता
अचानक किसी दूसरे पत्ते से
टकरा जाये
ऐसे ही हम भी
लोगों से
टकरा जाते हैं

न मिलने पर
अख्तियार है
न बिछुड़ने पर

वह फिर भी निर्जीव
पत्ता है
पर हम तो इनसान हैं
हमारा ही कितना अख्तियार है
मिलन या
बिछोह पर
फ़र्क इतना भर है कि
पत्ते को पता भी नहीं चलता
और हम पूरा जीवन
बिछोह के आलिंगन में गुज़ारते हैं