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बिटियाकोखी औरतें / अखिलेश श्रीवास्तव

कभी सुना है तुमने
उस गवई स्त्री के ठहाके में दर्द का अट्टहास
जिसकी हकीकत में तीन बेटियाँ हो
और ख्वाब में हो एक बेटा।
बेटों वाली स्त्रियाँ
कभी स्वप्न में भी नहीं जान पायेगी
बिटियाकोखी स्त्रियों का दर्द।

वो हर बार पूजा बढ़ा देती है
पर हर बार पाती है बिटियाँ
अब वह ईश्वर के खिलाफ हो चली है
परम्पराओ के खिलाफ हो चली है
नहाती ही नहीं है नरक चतुर्दशी को
जब बेटा है ही नहीं
तो वैसे भी नहीं मिलना स्वर्ग
ये फालतू का मनुवादी आडम्बर क्यों
इस तरह के तर्को से वैज्ञानिक बन
खिसिआई हँसी हंसती हैं
फिर कहती है-कहीं नहीं है स्वर्ग-नरक
सब 'यहीं' है
उनके यहीं में
हहाकर-सी समाई रहती हैं उनकी बेटियाँ।

कोईरी बुआ सबसे
पावर फुल्की अल्ट्रा साउंड मशीन है गाँव की
हफ्ता बता देती है
चार कदम चाल देखकर
पेटवा बढिआया है गोवर्धन जैसा
जबकि पीठियाँ शांत है यमुना जैसी
पक्का होगा कन्हैंया।

एक पिपरा वाले बाबा भी है गाँव में
गर्भवती स्त्रियों के पेट पर
उभरी लकीर देखकर पढ़ते है
अजन्मे का लिंग
जो नाभि से उठती है
और जाती है बहुत नीचे तक।

पल्लू हटने पर
झट छिनाल कह देने वाली सास
खुद बहुरिया संग कुटिया में जाती है
टाट पर लिटा उघार देती है पेट
और बिना कहे बाहर निकल जाती है
बहुत महीन व धुंधला-सा
पर शायद वह जानती है
लकीर के फकीर होने का मतलब।

बाबा देखते है,
टटोलते है, बहुत पास से
सूंघते है नाभि
तौलते है लेटी स्त्री की विरोध चेतना
फिर बडबडाते हुए
रगड देते हैं वक्ष पर भभूत
जिसमें से स्त्री सुन पाती है
सिर्फ़ माया व मोहनी जैसे शब्द।
ये पहले प्रहार हैं
इसे सुनकर काठ मार जाता है
उस बहादुर स्त्री को भी
जिसने कल ही मारा था दालान में
निकला गेंहुवन।


इन शब्दों का विष
फैल रहा है स्त्री के शरीर में
वो नीली पड़ती जा रही है
उसके कोरो से बहते अश्रुबूदों में
अपनी अनामिका डुबो कर
घिसता है एक जड़ी, बनाता है लेप
फिर झुकता है लकीर पर
 बड़े नजदीक से पढता हैं लकीर की लिखावट
इस बार योग शक्ति से आंखे जीभ में निकल आई हैं
यह योग शक्ति छोटी बड़ी मात्रा में होती है
हर पुरुष के पास।

लेप नाभि पर गिराता है, फैलाता है
सूंघता है, चखता है, थूकता है
जड़ी के बहाने वह नाभि, पिंडली व कमर चाट रहा है
स्त्री देह का पूरा कटि प्रदेश
भर देता है अपने लार से
लगता है अजन्मा खुद पिघल कर नाभि से
बाहर आ रहा हो
वो लार ज्वालामुखी से निकले
लावे की तरह गर्म है।
अचानक कूदकर उठाता है कमंडल
स्त्री के मुँह पर छीटें मारकर
साफ करता हैं फेंन चिल्ला कर
पूछता है पहिल का था
पूतना कि कन्हैंया...
निश्चेत स्त्री के मुंह में एक भी शब्द नहीं है
बाबा ने धर दिया है कमंडल पर कपाल
हमारा सारा ज्ञान, सारा व्याकरण, सारे शब्दकोश, सारे कर्मकांड,
उसी कमंडल में बंद हो गये है
मनु अपने पूरे नाव सहित
उस कमंडल में तैर रहे है
कमंडल में कोई
प्रलय नहीं है।

शब्द उपजाने की कोशिश में
वो अपनी आँख लगी जीभ डाल देता है
स्त्री के मुँह में
लेता है पूरे मुँह की तलाशी
स्त्री के निचले होंठ से खून रिसने लगा है
पिपरा के पेड़ पर बैठें बरम खुश है
चढ़ावा चढ़ चुका है
स्त्री देह से सम्बंधित कोई भी पूजा
उसके रक्त यादाह के बिना पूरी नहीं होती।

पूरे कंठ प्रदेश में
एक भी शब्द न होने से
बाबा उग्र हो उठता है
अब जीभ छोड़ दांतो से काट लेता हैं
उसके कान
वहीं चिल्लाता है
पूतना कि कन्हैया...
ये शब्द इतने तीक्ष्ण व तीव्र है कि
निस्तेज
स्त्री का ह्रदय कांप जाता है
बिखरे, निढ़ाल, क्षत-विक्षत दो शब्द होंठो पर
धरती फैले खून को लांघते
हुए निकलते हैं
तीन ठे पूतना...
ये शब्द ईश्वर के न्यायालय से जारी
बाबा के विजय का आदेश पत्र है।
बाबा चुभला कर
खाता है इन शब्दों को
फिर खींच कर पीता है
होंठ से रिसता खून
इस भोजन में
वहीं तृप्ति है जो परास्त शत्रु के
सर पर पैर रखकर उसे कुचलनें से आती है
 दर्प से उसका चेहरा चमचमा रहा है
विजय भाव शरीर में लगातार नीचे उतर रहा है
शरीर की सारी शक्तियाँ मिलकर
उसके एक महत्त्वपूर्ण हिस्से को तनाव दे रही हैं।
बाबा को समाधि की राह दिखी है
वह स्त्री नाभि पर पहुँचता है
और उसी लकीर की पगडंडी पकड़े उतरता जाता हैं
 नीचे और बहुत नीचे तक
एक जगह पहुँच कर वह
स्त्री की देह उतार देता हैं
स्त्री अब सिर्फ़ आत्मा है।
समाधि की राह पर
सबसे पहले टकराता है
हिमालय के एक पठार से
चीड़ के घने जंगल है आस पास
कई जंगली फूलों की गंध है
अनगढ़ जड़ें है
वहाँ कोई आवाज नहीं है
न कोई सन्नाटा है
ये बात शब्दों के जन्म के बहुत पहले की है
बहुत ठंड है वहाँ
वहाँ हजारों साल से कोई सूरज नहीं उगा
वहाँ कोई रोशनी नहीं है
घुप्प अँधेरा है

स्त्री अब आत्मा नहीं है
स्त्री अब प्रकृति है।
पुरुष की जीभ आँख है
उसके दोनों कान आँख है
उसका पूरा चेहरा हजारों आँखों से भर गया हैं
वह उस घुप्प अंधेरे में भी खोज लेता
है वह खोह
जहाँ उसे योग मुद्रा लगाकर बैठना है।

 वह अपनी आंखों
 लगी नाक, जीभ घुसाता है भीतर
झांक कर देखता है
कहाँ बैठे है ब्रह्मा
कहाँ छुपा है उनका अमृत कलश
जो इस खोह से लगातार उपजता रहता है, जीवन
न जाने कितनी सदियों से।
पुरुष जानता है कि वह हजार जन्म भी ले ले
तो भी उसका पाप उसे इस खोह में घुसने नहीं देगा।
अब वह बनाता है
एक वासुकि
खोह में डालकर मथता है उसे
अमृत कलश की चाह में।
वासुकि के मुख
से अग्नि शिखा निकल रही है
ब्रह्मा ने अपना अमृत कलश
अपने वामांग मुख की दाढ़ में छुपा लिया है
ओम ओम का उच्चारण अब घोष में बदल रहा है
लगातार मंथन से एक धार निकलती है उस खोह से
स्त्री अब प्रकृति नहीं है
उसका एक उप समुच्चय हैं
स्त्री अब एक कथित जीवन धार है
स्त्री अब गंगा है।
पुरुष उस धार में खोज रहा है अमृत
पर उसमें गाद है
वासुकि का विष है
उसकी केंचुल है
गाद है बहुत सारा
और अमृत छटाक भर भी नहीं
 स्त्री अब गंगा नहीं है
 स्त्री अब मथ दी गई मांस का लोथा है
जिसमें न देह है न आत्मा है, न प्रकृति।

पिपरा बाबा का देह धरे पुरुष अब
समाधि की अंतिम अवस्था में है
उसकी जटायें खुल चुकी है
वो लगभग शव हो चुके स्त्री देह पर
तांडव कर रहा है
पर वह शिव नहीं है
उसकी तांडव मुद्रा उर्ध्वाकार न होकर क्षैतिज है
 वह खूब लम्बी साँसे भर रहा है
 लटपटाती, हाँफती आवाज में
खूब तेज चिल्ला रहा है
ओउ$म ओ$ $म
बाहर बैठी बुढिया
भींच लेती है दोनों हाथ
चढ़ा लेती है माथे पर
मनौती में बढ़ा रही है
रत्ती पर रत्ती
और ये अंतिम ओ$$$म है
बुढिया पहुँच चुकी है आठ रत्ती तक
अब यही चढावा चढेगा
पिपरा वाले बाबा को।
इस बार बात
चीत्कार से आगे की है
प्रकोप इतना बड़ा है कि
मर्द घर छोड़कर भाग खड़े हुए है
पर झींगुर वही है
कुत्ते भूख से कूक रहे है
कुओं ने अपनी ठंडाई चूल्हो को देकर
खुद आग पकड़ ली है
सिसकियो के बीच बस बकरियाँ है
जो हुलस कर मिमियाँ रही है जिब़ह होने के खौफ को विस्मृत किये हुए
बधाई हो, बिटिया हुई है।