समय ने सफ़ाई से छला
उस सरल-हृदय ने मान लिया
कि गृहस्थ औरतों का क़लम पर
दूर-दूर तक कोई अधिकार नहीं।
अतृप्त निगाहों से घूरती किताबों को
ज्यों ज़िंदगी ने सारे अनसुलझे रहस्य
स्याही में लिप इन्हीं पन्नों में छुपाए हैं
उसकी ताक़त से रू-ब-रू
क़लम सहेजकर रखती है।
क़लम के अपमान पर खीझती
सीले भावों की बदरी-सी बरसती
उसके स्पर्श मात्र से झरता प्रेम
वह वियोगिनी-सी तड़प उठती है।
पंन्नों पर उँगली घुमाती
एक-एक पंक्ति को स्पर्शकर
बातें कविता-कहानियों-सी गढ़ती
शब्द नहीं
आँखें बंदकर अनगढ़ भावों को पढ़ती है।
अनपढ़ नहीं है वह
गृहस्थी की उलझनों में उलझी
शब्दों से मेल-जोल कम रखती है
उनसे जान-पहचान का अभाव
बढ़ती दूरियों से बेचैनी में सिमटी
आत्म छटपटाहट से लड़ती है।
शब्दों को न पहचानना खलता है उसे
आत्मविश्वास की उठती हिलोरों संग
साँझ की लालिमा-सी
भोर का उजाला लिए कहती है-
लिखती है मेरी बेटी
क्या लिखती है वह नहीं जानती
जानती है बस इतना कि लिखती है मेरी बेटी
पहाड़-सी कमी
छोटे से वाक्य में पूर्ण कर लेती है माँ।