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बूँद / विजेन्द्र

बूँद-बूँद जल को
मैं तरसूँ
तू औंधावै पानी।
हरी घास पर
फूल उगाता
मेरा बखत गोद में जाता
सज-धज के जाती
कारों में
सिला बीनती
वे हारों में।
उड़ा रहा तू
छप्पन भोग
लगे हुए
मुझको सौ रोग
तेरी दुनिया चकमक धानी
मुझ पर भूँके
कुतिया कानी।
शाल-दुशाले
पशमीना है
मुझको ठिठुरन में
जीना है।
दिन भर खोदी नींव पड़ा-पड़
थक कर
रात चदरिया तानी।
              2003