विंध्यगिरी अमरकंटक शिखर पर
अम्बर से गिरती बूंद-बूंद मेघस्याही
धुंआधार के मरकत मृदंग पर
मधुमास की भैरवी रूद्र का हुंकार
मिलन के राग विरह के गान
कोयल की कूक चामुंडा का रोद्र
लहर पंक्तिबद्ध मुक्तछंद जलगीतिका
किले, मंदिर, घाट, खेत, गृहणी, किसान
यक्ष कुबेर की निधियाँ, गंर्धवनारद के गान
महाकाल साक्षी शाश्वत बहती कहानी।
गंगा की तरह वह स्वर्ग से नही उतरी
नहीं वह महेश्वर की जटाओं में बंधी
रोक नहीं सकी सहस्त्रबाहु की भुजाऐं
रेवा नदी थी नदी की ही तरह बही।
अंतरगिरी में अमरकटंक पर घटाऐं
फाल्गुनी, बसंती, हेमंत, शीत, ग्रीष्म
शब्दघन धुंआधार बरसते कडकते
अन्तहीन रेतीली मरूभुमि में खो जाते
घनेरी घाटियों में दिशा तलाशते
कभी पथरीली चट्टानों को जगाते
सुरम्य नाद करूण आरोह अवरोह
भावों के किनारें भावनाओं का नीर
आम, जामुन, कास, बबूल की निधियाँ
सुनहले दुपट्टे से चूडियों के गीत
राग अनुराग भयद्वेष के अभेद्य किले
चेतना करूणा प्रज्ञा प्रीत के मंदिर
अश्रुजल से धुलते घाट पनघट
अन्तराचल पर कलकल शब्दसरिता बही
अपने अपने पथ बहती दो नदियाँ
भेद बडा एक दोनों में पाती हूं
लहरों के गीत लिखती विंध्यवासिनी
बहकर थमे सागर से जा मिलती है
भावमंथन से निकली अन्तरवासिनी
किसी सागर में समाना नहीं चाहती