उम्मीदों की आँखें भी अब पथराने लगी।
जिंदगी मौत से भी ज्यादा गहराने लगी।
तोड़ रहे तुम धरती के जन-जन की आशा।
सीख ली है तुमने भी नेताओं वाली भाशा।
दिल्ली की गलियों वाली हवाओं ने तुम्हें भी बहका दिया।
सत्ता की खातिर सूरज से ही नापाक गठजोड़ करा दिया।
जल रहे थे तब इसी धरती से लिया था तुमने पानी।
हमने भी अपनी जिंदगी को कर बेपानी तुम्हें दिया था पानी।
वादा कर मुकरने वाले नेताओं सा फिर
क्यों कर रहे हमसे आज बेईमानी।