वे हमारे चारो ओर
बिखरी रहतीं हैं
सुगन्धि की तरह,
सौंदर्य और मासूमियत के
एहसास की तरह,
ईश्वर के होने की तरह।
जन्म के पूर्व ही
मिटा दिए जाने की
हमारी छुद्र साजिशों के बीच
वे ढीठ
उग आती हैं
हरी डूब की तरह
और न जाने कब बड़ी हो
हमें भर देती हैं
बडक्पन के एहसास से,
उनकी उपस्थिति मात्र से
हम हो जाते हैं
सुसंस्कृत।
उनकी किलकारियों से
भर जाता है घर में
मौसमों का मंद कलरव।
और उनके गम-सुम होते ही
बोलने लगता है
घर का सन्नाटा भी।
वे मुस्कराहट बन
चिपकी रहती है
हर समय
कभी करा देती याद नानी
और कभी ख़ुद
दादीमाँ बन
करती मजबूर हमें
फ़िर से बच्चा बन जाने को।
उम्र भर परायी समझे जाने के बावजूद
भरी भरी आकंठ
अपनेपन से
ईश्वर के वरदान की तरह
वे हमारे लिए
दुनिया के हर कोने में
जल रही होती हैं
प्रार्थना हे दीपक की तरह।