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बेबसी / विजय राही

सर्दी की रात तीसरे पहर

जब चाँद भी ओस से

भीगा हुआ सा है

आकाश की नीरवता में

लगता है जैसे रो रहा हो

अकेला किसी की याद में

सब तारें एक-एक करके चले गये हैं ।

बार-बार आती है कोचर की आवाज़

रात के घुप्प अँधेरे को चीरती हुई

और दिल के आर-पार निकल जाती है

पांसूओं को तोड़ती हुई

झींगुरों की आवाज़ मद्धम हो गई है

रात के उतार के साथ।

हल्की पुरवाई चल रही है

काँप रही है नीम की डालियां

हरी-पीली पत्तियों से ओस चू रही है

ऐसे समय में सुनाई देती है

घड़ी की टिक-टिक भी

बिल्कुल साफ और लगातार बढ़ती हुई ।


बाड़े में बँधें ढोरों के गलों में घंटियां बज रही हैं

अभी मंदिर की घंटियां बजने का समय

नही हुआ है

गाँव नींद की रजाई में दुबका है ।

माँ सो रही है पाटोड़ में

बीच-बीच में खाँसती हुई

कल ही देवर के लड़के ने

फावड़ा सर पर तानकर

जो मन में आई

गालियाँ दी थी उसे

पानी निकासी की ज़रा सी बात पर ।

बड़े बेटे से कहा तो जवाब आया

"माँ ! आपकी तो उम्र हो गयी

मर भी गई तो कोई बात नही

आपके बड़े-बड़े बेटे है !

हमारे तो बच्चे छोटे हैं !

हम मर गए तो उनका क्या होगा ?"

माँ सोते हुए अचानक बड़बड़ाती है

डरी हुई काँपती हुई,

घबराती आवाज़ में रूदन

सीने में कुछ दबाव सा है ।

मैं माँ के बगल वाली खाट पर सोया हूँ

मुझे अच्छी नींद आती है माँ के पास

एक बात ये भी है कि-

माँ की परेशानी का भान है मुझे

बढ़ रही है जैसे-जैसे उम्र

माँ अकेले में डरने लगी है ।

जब तक बाप था

माँ दिन-भर खेत क्यार में खटती

रात में बेबात पिटती

मार-पीट करते बाप की भयानक छवियाँ

माँ को दिन-रात कँपाती

बाप के मरने के बाद भी उसकी स्मृतियां

माँ को सपनों में डराती

फिर देवर जेठों से भय खाती रही

और अब अपनी ही औलाद जैसों का डर ।

माँ की अस्पष्ट, घबरायी हुई

कँपकपाती , डर खाई आवाज़

जो मुझे सोते हुए बुदबुदाहट लग रही

जगने पर बड़बड़ाहट में बदल जाती है

मैं उठकर माँ के कंधे पर हाथ रखता हूँ

माँ बताती है कि -

"वह फावड़ा लेकर मुझे फिर मारने आ रहा है !

मैं उसे कह रही हूँ -

आ गैबी !

आज मेरे दोनों बेटे यहीं है

इनके सामने मार मुझे  !"

मैं चुपचाप सुनता हूँ

सारी बात बुत की तरह

कुछ नही कह पाता ।

माँ भी चुप हो जाती है

उसे थोड़ी देर बाद उठना है

मैं झूटमूट सोने का बहाना करता हूँ

मुझे भी सुबह उठते ही ड्यूटी जाना है ।