वैशाखोॅ के लू
सुखलै नद्दी झरना
बेकल छै मृग-मीन
आशा छै क्षीण
जेठोॅ के तॉव
होॅ-होॅ पछिया वॉब
मिलै नै छै कांही ठॉव।
गरमी सें परेशान छै
सब्भेॅ प्राणी
माँगै छै पानी।
आगिन बनी गेलोॅ छै वैशाख
दुबड़ी तांय जरी केॅ होय गेलोॅ छै राख
हे रितु वैशाख भाय
तोहीं छेकोॅ बरसा जननी
मारों नै ऐहिनोॅ तानी
विकल छौं तोरा सें सब्भेॅ प्राणी।
पछुआ बॉव सेॅ
बन-बन भटकै छै सब्भेॅ प्राणी
कांही नै मिलै छै पानी
कांही नै मिली रहलोॅ छै ठाँव
सब्भेॅ प्राणी बोली रहलोॅ छै
आबेॅ हमरानी कहाँ जॉव।