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ब्लांशमारी / सुशीला बलदेव मल्हू

दूर कोसों दूर तक
मारी की आवाज
घने जंगलों के सन्नाटे में
गुन-गुन गुन-गुन कर
यात्रियों को बुलाती है।
हरियाली से घिरी हुई
मँडराती, उमड़ती ब्लांशमारी
सदियों से सफेद साड़ी में सजी
नील से नीचे
तांडव के धुन पर
दो तरफ घने वन
सामने नील गगन
बीच में बहती नदी की धारा
जैसे नीलकंठ ने गगन से उतारा।

चट्टानों के सिर से टकराती
मारी साड़ी के आँचल फड़फड़ाती
बल खाती, आसमान से धड़धड़ाती,
धरती को चूमती,
और व्याकुलता को आगे बढ़ाती है।
फिर फूट-फूट मारी जलधारा
बूँद-बूँद बन चहुँ दिशी निखारा।
बन की वृक्ष लताएँ टहनी
नमन करें झुक प्रेम अति गहनी।
बूँद के बदले पुष्प की वर्षा।
देख इसे सब का दिल हर्षा।
अमृत रस सब जन को पिलाती,
सब की प्यास एक क्षण में बुझाती।
मारी कल-बल कल-बल करती,
इठलाती और आगे बढ़ती।
पत्नी विरह की व्यथित व्यथा में
जलधारा लाई छवि प्रिया की
अपने प्रिय की याद अमर कर
जल प्रवाह को दिया नाम धर
ब्लांशमारी, तू उज्ज्वल मारी
पत्नी जैसी तू भी अति न्यारी
युग-युग रहे यह दश्य अति प्यारी
ओ मारी, मैं तुझ पर वारी।