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भट्टी / शांति यादव

थापती हूँ जब मैं कंडे,
विभिन्न आकार के,
सोचती हूँ
इन कंडों की तरह
यदि मिली होती
यह दुनिया बनाने को।
सबसे पहले बनाती,
मैं स्वयं को

नए ढाँचे में।
समाज बनाती
नये साँचे में।
फिर मेरी बच्चियों की,
मेरी पीड़ा की
यों हलाली तो न होती
पर क्या करूँ?
प्रकृति ने
मुझे साँचा बना दिया
दूसरे के हाथों का।
वह जब चाहता है
इस्तेमाल कर लेता है
जब तक बुत बनाने की शक्ति
मुझमें होती है
फिर बना देता है
मुझे भट्टी,
उन बुतों को
पकाने के लिए।
बचा लेता है
अपने हाथ जलने से,
और दहकते-दहकते
मैं राख हो जाती हूँ।