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भयमुक्त प्रेम / विमल कुमार

इतना भयभीत मैं कभी नहीं था
जितना हूँ आज
एक फूल लेकर आया था किसी के द्वार
पर उसे लौटा दिए जाने का भय है मेरे अन्दर

एक क़िताब मैंने दी थी किसी को कभी
आज उसे भी लौटा दिए जाने का भय है मेरे भीतर

भय है
इस बात का
कहीं मेरा निमन्त्रण-पत्र
न ठुकरा दिया जाए
जब है इतना भय
मेरे मन में
तो कैसे किया जा सकता है
किसी व्यक्ति से प्रेम !

मैं तो भय-मुक्त होकर
चाहता हूँ किसी से मिलना
किसी को फ़ोन करना
अगर किसी से मिलने पर
लगे मुझे इस बात का भय
कि कहीं वह नाराज़ न हो जाए
किसी बात पर मुझसे
तो फिर उससे दोबारा
कैसे मिला जा सकता है

इस तरह
तमाम शंकाओं और आशंकाओं के बीच
किसी को चाहना
ठीक नहीं है

प्रेम तो निर्भय बनाता है
मनुष्य को
मैं तो ख़ुद को भय-मुक्त करने के लिए
करना चाहता था किसी से प्रेम
पर चारों तरफ घिर गया हूँ
भय की दीवारों से...
जिसकी एक-एक ईंट
पकी है मेरे भीतर गहरी आँच लिए
प्रेम की भट्ठी में !