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भरि राति / रमानन्द रेणु

 
आइ रातिक प्रथमे प्रहरमे
घेरि लेलक अछि सौंसे घरकें अन्हार
कोनो दोग सें हुलकी दैत अछि इजोरिया

गामक चौबट्टी पर भूकैत अछि कुकूर
आ एकातमे उपेक्षित पड़ल अछि
मृत्तप्राय नदीमे
आबि गेलैक अछि अकस्मात् बाढ़ि
बाघ-बोनसँ अबैत असंख्य झिंगुरक झुनझनी
बन्न अछि
दूपहर रातिमे गर्द करैत कोतवाल
अलसा क’ कत्तहु सूति गेल

हमर हाथक लाठी नहि जानि कत्त’ हेरा गेल
आ अभरचंक भेल मोन
भ’ गेल अछि खकस्याह

रातिक तेसर पहरमे
कत्तहु सियार-खिखिर बाजि उठल
कात करोटसँ उधियाइत अछि

अजानक स्वर
तन्द्रा भंग करबामे सक्षम नहि भेल
राति ढरैत गेल
महिसवार सभ एकाँ एकी
अपन महीसक संग पौसर खोलि विदा भेल
नहि जानि आइ ककर लहलहाइत फसिल
चरि जएतैक

अन्हार आर गँहीर भ’ गेल
लोहारक चोटसँ आगि भेल लोह पर
चोट पर चोट पड़ैत अछि
ठाँइ-ठाँइ
हम भोरक प्रतीक्षा क’ रहल छी

राति भरिक एहि ऊहापोहमे
नाड़ी तंत्र सुन्न भेल जा रहल अछि
कारी अन्हार आ उज्जर इजोतसँ
हम लड़ैत रहलहुँ
आ अपन घर अजबारने रहलहुँ
ओहिना आने दिन-जकाँ