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भविष्यत् / महेन्द्र भटनागर

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
अपार अंधकार है,
प्रगाढ़ अंधकार है !
न चांद है, न सूर्य,
बज रहा न सावधान-तूर्य !

मृत्यु के कगार पर
खड़ी मनुष्यता सभीत,
बार-बार लड़खड़ा रही !
कि उद्जनों व अणुबमों-प्रयोग से
कराह काँपती मही !
तबाह द्वीप हो रहे,

बड़े-बड़े नगर तमाम
देखते सदैव स्वप्न में ‘हिरोशिमा’ !
गगन विराट वक्ष पर
विकीर्ण लालिमा,
धुआँ, धुआँ, धुआँ !

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
प्रकाश चाहिए,
प्रकाश का प्रवाह चाहिए !
हरेक भुरभुरे कगार पर
सशक्त बाँध चाहिए !
अटल खड़ा रहे मनुष्य,
आँधियों के सामने
अड़ा रहे मनुष्य
शक्तिवान, वीर्यवान, धैर्यवान !

ज़िन्दगी तबाह हो नहीं,
कराह और आह हो नहीं !
हँसी !
सफ़ेद दूधिया हँसी
हरेक आदमी के पास हो !
सुखी भविष्य की
नवीन आस हो !