भर दो
मेरे अंतर का खाली पात्र
अपनी मधुमय चांदनी से
ओ दयालु चंद्रमा...
ऊर्जवसित कर दो
मेरे मन-प्राणों को
अपनी तेजस्वी किरणों से
ओ प्रतापी सूर्य...
गहराई दो मुझे
ओ समुद्र इतनी
कि समस्त यंत्रणाएँ पी जाऊँ
और फिर भी रहूँ
मर्यादित, गंभीर...
सदा, सर्वदा प्रवहमान
रहूँ मैं तुम्हारी तरह
याचना करता हूँ ऐसी तुम से
ओ सदानीरा, निश्छल नदी...
तपाओ मुझे ऐसा
ओ अग्नि
कि स्वर्ण जैसा
ख़रा होकर निकलूं मैं
हर परीक्षा में...
पारदर्शी बनाओ मुझे
अपने जैसा ओ वायु
कि अनुभव कर सकूँ मैं
जड़-चेतन को निरन्तर
अपने आस पास
समान भाव से...
तुम्हारे जैसी दृष्टि चाहिए मुझे
ओ सर्वदर्शी आकाश
और तुम्हारे जैसा हृदय...
धैर्यवान बनाओ मुझे अपने जैसा
ओ पृथ्वी
और दो अपने जैसी
क्षमाशीलता का दान...
वनस्पति की हरीतिमा
फूलों की सुवास
और फलों का माधुर्य
उंडेल दो मेरे मन-प्राणों में
ओ वेब-देवता...
सचमुच बहुत
बहुत व्यग्र हूँ मैं आज
प्रकृति के संग
आत्मसात, एकाकार हो जाने को
थक गया हूँ मैं
ढोते ढोते अपना मिथ्या अहम
नहीं रहना चाहता
अब हर एकाकी...
भिक्षा दो
अपने अनुग्रह की मुझे
ओ प्रकृति...!