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भुजंगा / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

भुवनविदित ‘काला नवाब’ तुम, कोतवाल चिर परिचित,
‘ठाकुरजी’ के सम्बोधन से भी तुम महिमामण्डित।
कुसुमविर´्जित तरु की भुजवल्लरियों से आलिंगित,
साहस, विक्रम, निर्भयता के मेरुदण्ड तुम कीर्त्तित।

प्रातः-सायं तुम्हें देखता, पेंग हवा में भरते,
गगनदेश में मँडराते कौवे का पीछा करते।
तिरछे हिला पंख को आगे-पीछे, नीचे-ऊपर,
पकड़ चोंच से लेते कीड़ों को उड़ते ही रह कर।

रहने भर के लिए बनाते गोल घोंसले अपने,
बाहर जाते कहीं नहीं तुम देश छोड़ कर अपने।
बहुत दूर से टोह लगा लेते शिकार की अपने,
द्वारपाल से पहरे देते नीड़द्वार पर अपने।

अलग-अलग बोलियाँ बोलते तुम सोने-जगने की,
कलरव करने, चुप रहने की, पंख खोल उड़ने की।
खतरे की आशंका से ही अण्डों पर निश्चेतन,
हो जाते सचेत, करते तुम कारण का अवलोकन।

पेंग बढ़ाते तरुशाखादोला पर पवनान्दोलित,
रहते पर तुम निज पंखों के ही बल पर अवलम्बित।
मधुर तुम्हारी नादव्यंजना लहर-भँवर बन नूतन,
करती किस सौन्दर्य-नियन्ता की महिमा का गायन?

तुममें दिशाकाश के दर्शन, पृथिवी के वर्णाक्षर,
काले पंखों की उड़ान में, उठती लहर निरन्तर।
तुममें अपने अन्तरंग की छवि का कर अभिव्यंजन,
होड़ लगाती धरा स्वर्ग के वैभव से सम्मोहन।

पहर-पहर में अम्बर के गवाक्ष-रन्ध्रों के भीतर,
खुलते हुए तुम्हारे जीवन के चलचित्र मनोहर।
दृष्टिपटल पर आते रंगों का वितान पूरा कर
नृत्य तरंगित कर देते मन को कौतूहल से भर।