तेज़ी से बढ़ रहा समय है
और कलेण्डर पिछड़ रहे हैं
काफ़ी आगे निकल गया है
जल्दी-जल्दी क़दम उठाने वाला नया बसन्त
और अब पीछे-पीछे हाँफ़ रही है भारी-क़दम बसन्त-पंचमी ।
आँक नहीं पाता यह तारीख़ों-माहों-बरसों का ढाँचा
समय-चाल को ठीक-ठीक से
सोमवार को अभी कलेण्डर सत्रह ही तारीख़ बताता
लेकिन वह अट्ठारह, बीस, तीस तक पहुँच रही है।
ऊपर से ज्यों का त्यों दिखता अण्डे का यह खोल
कि जिसके भीतर का वह जीवन-अंकुर
अपनी गति में
खोल की सारी जड़ सीमाएँ पीछे छोड़ चुका है ।
और खोल जो अब तक उसका कवच था
अब ज़ंजीर बन गया ।
लेकिन देख रहे जो केवल मात्र खोल की मज़बूती को
और नहीं जो बूझ रहे हैं
उसके भीतर उगती एक नई ताक़त को
जिस दिन वह टूटेगा
बहुत चौंक जाएँगे
घबरा कर पूछेंगे
एकाएक अचानक यह भूकम्प कहाँ से आया ?