Last modified on 5 अगस्त 2017, at 11:16

भूमिका / उजाले का सफर

     सृजन धर्म एक अंतहीन संश्लिष्ट प्रक्रिया है और श्रेष्ठतम रचना कवि जीवन का प्रतीक्षित बिंदु है। ‘उजाले का सफ़र’ ग़ज़लकार कवि डॉ डी एम मिश्र के कई रचना पड़ावों से चयनित की गयी ग़ज़लों का संकलन है। यद्यपि इसके पहले ‘आदमी की मुहर’ व ‘लहरों के हस्ताक्षर’ संज्ञक कृतियों में भी कवि ने ग़ज़ल विधा पर अपनी छाप छोड़ी है। सफ़र जारी है।

      उर्दू के गुलगुली गिल के गलीचे से हिन्दी की खुरदुरी भूमि तक की यात्रा में मिले अनुभवों से ग़ज़ल ने अपनी रूह में परिवर्तन किया है। अब हिन्दी ग़ज़ल गुलाब की पँखुरी में रहकर भी पँखुरियों की सरहद पार कर जाने वाली ख़ुश्बू है। यह भाषा के द्वारा मानवता की पहरेदारी करने का जज़्बा है, मनुष्य के अपराजित महात्म्य का शिलालेख है। यह मात्र भावात्मक उत्तेजना नहीं एक वैचारिक कटघरा है।

    ‘उजाले का सफ़र’ का कवि, समकालीन समाज में व्याप्त उस अँधेरे का उपभोक्ता है जिसे व्यापक जन समुदाय भोग रहा है। ग़ौर करने लायक बात यह है कि कवि की जिजीविषा उस व्यापक जन समुदाय को अँधेरे से संत्रस्त होने से बचाती है साथ ही उस अँधेरे की चीड़फाड़ का हौसला देती है, अंधेरे की संरचनात्मक रेखागणित को हल करने की समझ भी। इसीलिए यह उजाला नहीं - ‘उजाले का सफ़र’ है। यहाँ ‘चाहत’ और ‘इबादत’ का फर्क़ ग़र्क हो रहा हैं, स्वर्ग और उपवर्ग तथा पौराणिकता व अलौकिकता को ख़ारिज कर व्यापक मानवता का पथ-प्रशस्त किया जा रहा है। कवि के शब्दों में -- ‘गीत, कविता या ग़ज़ल केवल बहाना दोस्तो / आदमी से आदमी की बात हम करते रहे’।
 लेकिन ठंडे मन से नहीं -
 
इस बर्फ़ में, उस आग में कुछ बात है जो एक है
जब तक जियें उगलें धुएँ, अपनी जगह, अपनी जगह।
       
विश्वास है कि यह धुआँ किसी कुहेलिका, कुहासा को नहीं ज्योति शिखा को सृजित करेगा।
      
                             --- डॉ राधेश्याम सिंह