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भूमिपुत्र / राजीव रंजन प्रसाद

बहुत से जानवर
इलाका बनाते हैं अपना
जिसके भीतर ही
भौंकते-किचकिचाते हैं,
थूकते-चाटते हैं,
और कोने किनारे पाये जाते हैं
टाँग टेढी किये।
मजाल है घुस जाये कोई?
वो मानते हैं कि हम
अपनी गली के शेर
बखिया उधेड सकते हैं
कभी भी-किसी की भी
इलाका अपना है....

एक आदमी, एक रोज
जा रहा था कहीं
काट खाया उसे उसकी ही गली के
किसी सिरफिरे “कुक्कुरश्री” नें
बस तभी से हाल है
खुजलियाँ हो गयीं
काट खाने को फिरता है देखे जिसे
हो मजूरा कि हो टैक्सी ड्राईवर
उसके चश्में में हो आदमी अजनबी।

पंजाब से उसको गेहूँ मिले
धान उसका बिहारी है पर क्या करें?
संतरे से ही गर पेट भरता तो फिर
उसको कश्मीर के सेब क्योंकर मिलें?
उसका सूरज अलग/उसका चंदा अलग
काश होता तो राहत से सोता तो वो
सबका खाता है और ‘मल’ किये जा रहा
और मलमल में मचला के कहता है वो
गाल बजता है और थाल में छेद है
टूट होगी जहाँ से वही सूत्र हूँ
भूमिपुत्र हूँ।

27.02.2008