Last modified on 16 अक्टूबर 2021, at 04:47

भू-दृश्य / उंगारेत्ती

   १
सुबह

ताज़ा ख़यालों की माला वह
पुष्पित जल में दीप्त ।

   २
दोपहर

पतले तन्तुओं से हो गए हैं
पहाड़
और पसरता रेगिस्तान

उमड़ रहा है अधीरता से
नींद तक परेशान है
परेशान हैं बुत भी ।

   ३
शाम

आग पकड़ती हुई पाती है
वह अपने को निर्वसन
लाली समुद्र की हो जाती है

बोतली हरी
कुछ नहीं, सीपी है यह ।

चीज़ों में शर्म की टीस
औचित्य जताती है इन्सानी
दुख का

एक पल के लिए उदघाटित
करती हुई
जो कुछ है समूचे का
अनवरत क्षय

   ४
रात

सब कुछ पसरा है विरल,
भ्रान्त
जाती हुई रेलों की सीटियाँ

और यहाँ, जहाँ अब
कोई साक्षी नहीं है
उभरता है मेरा चेहरा

वास्तविक
    और निराश ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : नन्दकिशोर आचार्य