नदी किनारे भेड़ खड़ी एक सुख से पीती थी पानी।
एक भेड़िये ने लख उसको मन में पाप-बुद्धि ठानी॥
बिना किसी अपराध भला मैं इसका कैसे करूँ हतन।
उसे मारने को वह जी में लगा सोचने नया यतन॥
कर विचार आकर समीप यों बोला कपट-भरी बानी।
‘‘अरी भेड़ तू बड़ी दुष्ट है क्यों करती गँदला पानी॥’’
क्रोध-भरी लख आँख बिचारी भेड़ रही टुक वहाँ सहम।
बोली-‘‘क्यों अपराध लगाते हो चितलाते नहीं रहम॥
मैं तो पीती हँ पानी तुमसे नीचे की ओर।
भला कहीं होती भी होगी जल की उलटी दौर’’?।
सुनकर उसके बचन भेड़िया फिर बोला उससे ऐसे
पारसाल उस पेड़-तले तूने दी थी गाली कैसे?’’
डरकर भेड़ विनय से बोली मन में उसको ज़ालिम जान।
‘‘मैं तो आठ महीने की भी नहीं हुई हूँ, कृपानिधान।’’
‘‘कहाँ तलक तरे अपराधों को दुष्टा मैं कहा करूँ।
है बहस करती वृथात् मैं भूख कहाँ तक सहा करूँ।
तू न सही तेरी माँ होगी,’’ यों कहकर वह झपट पड़ा।
भेड़ बिचारी निरपराध को तुरत खा गया खड़ा-खड़ा॥
जो ज़ालिम होता है उससे बस नहिं चलता एक।
करने को वह जुल्म बहाने लेता ढूँढ़ अनेक॥