Last modified on 21 मई 2013, at 19:07

भैरवी हूँ! / प्रतिभा सक्सेना

 
उठो भैरव,
मैं तुम्हारी भैरवी हूँ!

यह जगत जो कर्म का पर्याय होता,
और जो कि प्रबुद्ध जीवन-मर्म का समवाय होता,
रह गया है कुमति की औ'दानवों की विकट लीला.
ओ त्रिशूली, भूधरों को कर विखंडित .
इस धरा की साँस को नव वायु देने
उतर आओ धरा पर मैं टेरती हूँ!

ये बिके-से लोग, कैसे साथ देंगे ?
अकर्मण्य कुतर्क ही हिस्से पड़ेंगे,
यहाँ सबको सिर्फ़ अपनी ही पड़ी है .
पशु नितान्त मदान्ध सारे खूँदते धरती रहेंगे
चले आओ तुम प्रलय का नाद भरते,
कंठ हित नर-मुंडमाल लिए खड़ी हूँ!

अरे विषपायी, उगल दो कंठ का विष,
भस्म हो जाएं सभी कल्मष यहाँ के,
गंग की धारा जटाओं में समा लो,
भेज दो दिवलोक में फिर सिर चढ़ा के
घूमता गोला धरा का जिस धुरी पर
अंतरिक्षों में घुमाकर फेंक डालो!
रच दिया परिशिष्ट, उपसंहार कर दो,
चलो रुद्र कराल बन तुम काल, मैं प्रलयंकरी हूँ .

आज आँसू नहीं बस अंगार मुझ में,
एक भीषण युद्ध की टंकार स्वर में.
नहीं संभव जहाँ सहज सरल स्वभाव जीना
जब कृतघ्नों की हुई हो चरम सीमा.
व्यर्थ हों वरदान कुत्सा से विदूषित
वार उन का ही उन्हें कर जाय भस्मित.
रक्तबीजों के लिए विस्तार जिह्वा मैं खड़ी हूँ!
उठो भैरव, मैं तुम्हारी भैरवी हूँ!