Last modified on 3 अक्टूबर 2008, at 23:39

भोपालःशोकगीत 1984 - कोई नहीं रोता / राजेश जोशी

अब यहाँ कोई नहीं रोता।

लोग बहुत जल्दी थक जाते हैं और
बहुत जल्दी ऊब जाते हैं।
एक शंका रह रह कर शहर का चक्कर काटती है।
एक डर लोगों के साथ-साथ चलता है
परछाईं की तरह हर वक़्त।
हवा गुजरती है बच्चों की क़ब्र को छूती हुई
और एक खरखराता हुआ शब्द गूँजता है
रुँधे गले जैसे कोई बच्चा
आख़रीबार पुकार रहा हो
माँ
अब यहाँ कोई नहीं रोता।

शहर के एक इलाके के सारे पेड़
अब भी स्याह हैं।
रात के अँधेरे में वे किसी शोक जुलूस की तरह
नज़र आते हैं।

औरतें कुछ भी याद न करने की कोशिश करती हुई
दिन भर लिफ़ाफ़े बनाती हैं, किसी कतरन में
बच्चे की तस्वीर देखकर ठिठक जाती हैं
आँखें चुराते हुए
काग़ज को जल्दी से पलट कर
ढेर में मिला देती हैं।
अब यहाँ कोई नहीं रोता।

सिर्फ़ झरी हुई पत्तियाँ रात में सरसराती हैं।