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भौंक-भौंक कर चुप हो जाते / नईम

भौंक-भौंक कर चुप हो जाते,
दुमें हिलाते,
तब तो कोई बात नहीं थी;

भला नहीं लगता, लेकिन अब
बकरी-सा उनका मिमियाना।

अब भी उनकी वही गली सँकरे कूचे हैं,
फर्क़ यही आया सज्जन नकटे बूचे हैं,
साख़ गिरी, पहचान खो गई

मुँह ही नहीं, जु़बान खो गई।
आज़ादी के बाद कलाओं का
ये बिल्कुल नया घराना।

अलिफ भौंकने की तो बात समझ में आती,
ओछी पूँजी से ये बनने चले बिसाती;
हश्र यही होना था अब प्राणों के लाले,

बहनोई या हों फिर साले;
नहीं रही अब वैसी ठुमरी-
बदल गया है बहुत तराना।

अगर स्वस्थ होते तो तय था अनहद गाते,
अब गाने की जगह भलेमानुस चिल्लाते।
हीन ग्रंथियों के शिकार-

ये कलाकार अब,
चालढाल में अपनी बेढब-
सँकरे में करते फिरते हैं
साँझ-सबेरे ये समधियाना।