मखमली वसन से ढँक दूँगी प्राणेश! सदन का वातायन।
उडुगण की दृष्टि बचा कस दूँगी कठिन कपाटों पर बन्धन।
मैं बहुत सभय हूँ प्राणेश्वर! वर्धित हो गया हृदय-स्पन्दन।
भय है रजनी-स्मृति ले पंखों पर उड़े न “पंकिल” चपल पवन।
पगली के तन पर कम से कम वे बन स्मृति-चिह्न रहें छाये।
आये न हाय प्राणेश सखी री! प्रियतम नहीं -नहीं आये।
क्या जाने पीड़ा की क्रीड़ा बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥142॥