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मजबूर आस्था / उमा अर्पिता

तुम्हें बता भी नहीं सकती
मेरे अपने, कि
कैसे रिसता है
लहू भीतर-भीतर, जब तुम
कोई चुभता-सा सवाल मेरे कानों में
उँडेल देते हो, जिसका जवाब
खुशबुओं की वादियों से
होकर नहीं गुजरता, वरन
मेरी मजबूर आस्था की राह पर
ठिठका-सा खड़ा रह जाता है!

ऐसे में
तुम्हारी साँसों में महकती
चम्पा, चमेली भी
मेरी आँखों में
समुद्र भर देती है
और तुम्हारे वक्ष का कठोर धरातल
मेरे लिए वक्त की
वो दलदल बन जाता है, जिसमें
धँसते हुए
तुम्हारा हाथ
मेरी पकड़ से दूर/बहुत दूर
होता चला जाता है!

रह-रह कर
बींधने लगती है मुझे
मेरे गले में अटकी
भयानक चीख, जो तुम्हें
समझा नहीं पाती, कि
मेरे भीतर
रिसते लहू का रंग भी लाल है!