विरह-अनल से दिशाएँ उठी हैं लहक
नभ-थल-जल में लपटें लहराती हैं
नहीं है किरणजाल, सांध्य की लालिमा फैली
लपटें अनल की हंै ये जो दिखलाती हैं
गिरि-द्रुम-वेल्लि गण आग में लहक उठे
जहाँ तक दृष्टि जाए लपटें दिखाती हैं
झुलस रहे हैं पाँखें हरेक विहंगिनी के
पीर से घायल हो रुदन किये जाती हैं ।
धुआँ की सवारी पर चढ़ी चिनगारी आई
मधुपुर नभ पर ऐसे दिखलाती है
बाँटते खद्योत ज्योति, तिमिर उजाला करे
लेकिन अजेय निशा काली होती जाती है
घिरी हो घटाएँ काली अछोर सभी ही ओर
खंड-खंड दामिनी ही दमकति आती है
घायल विधि ही वाम अनहोनी बात होती
कैसी घनघोर घटा आग बरसाती है ।
लपक-लपक आती लपटें उद्धव-ओर
इधर-उधर दौड़ प्राण को बचाते हैं
किसने हमारी मति मारी, सारी बुद्धि गई
अपने किये के फल पर पछताते हैं
‘भूल क्यों गये हो कान्ह, भूल क्या हुई है हाय’
ऐसा कह-कह कर घोर पछताते हैं
फणि को मिली हो मणि आँसू की नदी जो देखी
आए दौड़े-दौड़े उधौ और कूद जाते हैं ।
नैन से निकस नीर गालों पर छाए ऐसे
कन्दरों से आते नद भूमि को भिगोते हैं
दौड़ते उपंगसुत द्रुत मथुरा के पथ
देखते सभी ही ओर, रुक-रुक जाते हैं
किसी को कन्हैया जान थाम लेते हैं वे अंग
ये ना है कन्हैया देख, आगे बढ़ जाते हैं
कभी तो पुकार करे ‘सुनो, सुनो, सुनो कान्ह’
देखते जो नैन फेर, नैन फिर जाते हैं ।