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मन-रंग–1 / अपर्णा अनेकवर्णा

मेरे मन का रंग है
गाढ़ा ठुडुक लाल..

वो प्रेम भी
उसी रंग में करता है..
और घृणा भी...
हिंसक होने की हद तक..

दुखता है तो
इतना गाढ़ा हो उठता है
कि जामनी हो जाता है...
कत्थई का अन्त..
बैगनी की शुरूआत..

बस कभी-कभी..
माँ.. शिशु.. प्रकृति.. इष्ट..
के आस-पास..
सफ़ेद होने लगता है ...

हो नहीं पाता..
मद्धिम गुलाबी के..
अलग-अलग वर्ण लिए
रह जाता है..

उस सफ़ेद का
बहुत इन्तज़ार है