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मरगोजा / विजेन्द्र

चूरू के निर्जन टीलों पर
देखा मैंने
खिला मनगोजा।
बहुत दिनो तक रहा जोहता बाट
उसके खिलने की
रहा पूछता चरवाहो से।
रेत के बड़े-बड़े टीले
ढ़ूहो का एकांत
भरा ठोस सन्नाटा काँटों से
रेत पर बिखरी लहरियोंदार
तँबई लहरें।
मरगोजा-
बिल्कुल अकेला ही खिला था वहाँ
पूरे वैभव में
छितराए पंख सफेद
बिल्कुल अकेला
कोई पेड़ न था
न घास, न झाड़ी, न बेल
न छाया रती भर
सिर्फ मरगोजा-रेत में खिला षतदल
देखने में विनम्र
पर बड़ा हठी था
मैं खड़ा सोचता अपने बारे में
मैं तो नही अकेला
साथ और है मेरे
न मैं ऐसा हठी, न गर्वोन्नत
देखता रहा, देखता रहा।
सूर्य अपनी तिरछी किरणे बरसाता रहा
धरती पर
वह शांत था
बढ़ती गई बेचैनी मेरी
इसे कसे उतारूँ चित में
ज्यों का त्यों
यह मुमकिन नहीं
कितना भर लूँ आँखो में
शेष बची रहती है वस्तु अलग मुझ से।
सनी हुई थी पंखड़ियाँ उसकी
रेत कणों से
धारियां खिंची गुलाबी
साहस कर जड़ से उखाड़ा उसको
घर ले आया-
रास्ते भर सुनता रहा धड़कने अपनी
पछताया अपने कपट और कृमघ्ना पर
जैसे मैने भंग की है
विराट की लय
तोड़ा है छंद निसर्ग का।
क्यों ले आया
जड़ो से इसे अलग करके-
घर के कौने में रखा
बड़े आदर से
नया अतिथी अब कुछ-कुछ उदास था
फीका-फीका
जैसे कह रहा हो
अपनी तरह ही निर्मूल किया है
तुमने मुझ को
अग्रदूत हूँ मैं वसंत का
इस निर्जन थार में
देख मुझे जीवन पाते है किसान
अच्छा सवंत होगा इस साल
सिर्फ वसंत ही रहा मेरा जीवन
मेरे मुरझाने से
लोग समझ लेते हैं
ग्रीष्म आने को है।