Last modified on 10 फ़रवरी 2011, at 18:42

मर्मांतिका / दिनेश कुमार शुक्ल

पंखुरी-दर-पंखुरी दिन खुल रहा है
समय की गति मन्द करता हुआ
जैसे पक रहा हो डाल पर फल,
घुमड़ता हो राग
कोई कण्ठ बस अब फूटने को हो

अपनपौ पा के जैसे खोलता हो कोई अपना मन
पराये देस में आहिस्ता-आहिस्ता
हिचकिचाती फूटती पहली किरन
ज्यों रात की रानी
रुपहली चाँदनी के सरोवर में अभी उतरी हो
कि मुर्गा बाँग दे दे,
सहस-रजनी-चरित का कोई कथानक
मंच पर आये कि पर्दा ही गिरा दे सूत्रधार,

धीरे-धीरे दिन चढ़ेगा
कभी पल छिन की तरह ये बीत जायेगा
कभी काटे कटेगा ही नहीं,
हर हाल में लेकिन थका-हारा
किसी दीवार से टकरायेगा और
बिखर जाएगा,
पीछे-पीछे दबे पाँव एक छाया आ रही होगी
जो झुक कर बीन लेगी काँच के टुकड़े
एक नयी मर्मान्तिका
सहस-रजनी-चरित में जुड़ जायगी ।