Last modified on 7 नवम्बर 2014, at 16:12

महतारी / पढ़ीस

तुम रूपु रतन की रासि
रूपहुली किरनन ऊपर बिहँसि-बिहँसि;
हीरा-मोतिन के थार भरे,
बिथरउती<ref>बिखराना</ref> हउ हमरे ऊपर।
हम जानिति हयि तुम को आहिउ,
पहिचानिति हयि का लायी हउ।
छकि<ref>तृप्त, संतुष्ट</ref> जायिति हयि छबि-छाप देखि
थकि जायिति हयि उठतयि ऊपर।
तुम जउनि अखंड जोति आहिउ,
जगु जगमग-जगमग करती हउ;
तुम सात समुंदुर पार पयिठि,
रहती हउ हमरी आँखिन पर।
तुमरे आँचरू को छोरू छबीला,
तीनि लोक तकु छहरि<ref>छहरना, फैलना, उड़ना, विस्तारित</ref> रहा-
तुम महर-महर <ref>महकने का विशेषण रूप में</ref> महकती रहउ,
जल थल पर पल-पल के ऊपर।
युहु मीठ-मीठ झनकार भरे
गर<ref>गला</ref> ते गरबीली<ref>अभिमानिनी, गर्वीली</ref> का गायउ ?
जगु गूँज रहा जगु मोहि रहा,
जगु जूझि रहा जिहि के ऊपर।
तुम सुर्ज लोक की रानी का
चंद्रमा चढ़ी मड़रायि रहिउ ?
तारागन तपि-तपि तुमका तकि
तनु वारति हयिं तुमरे ऊपर।
कस मोहन-मन्तरू मार्यउ मय्या
तुम मोहिनी रूपवाल;
कस सुन्नु-गुन्नु कसि टुकुरू-टुकुरू
टकटकी लागि तुमरी छबि पर।
तुम नारी हउ, महतारी हउ,
बहिनी-बिटिया सब कुछ आहिउ;
कन-कन ते लयि सुख का गुलालु
बरसउती हउ हमरे ऊपर।

शब्दार्थ
<references/>