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महसूर था / शहराम सर्मदी

बहुत गड-मड थे
रोज़-ओ-शब के वो सब ताने-बाने और
न मैं मश्शाक़ था ऐसा
कि चादर कोई बुन लेता
मगर महसूर था
और जानता था ये मशक़्क़त
काटना क़िस्मत में आया है
सो जैसे बन पड़ा ये काम भी पूरा किया मैं ने

प अब जब देखता हूँ
अपने रोज़-ओ-शब का हासिल
यानी वो चादर

तो कहता हूँ
कि ऐ लोगो !
उसे हम-राह मेरे दफ़्न कर देना
कोई पूछे तो कह देना
अरे छोड़ो चलो इक चाय पीते हैं