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मातृभाषा / महेश वर्मा

यह मेरी चोट और रूदन की भाषा है।
इतनी अपनी है कि शक्ति की भाषा नहीं है।
यह मैं किसी और भाषा में कह ही नहीं पाता
कि सपनों पर गिर रही है धूल

तहख़ाने में भर रही रेत में सीने तक डूबने
का सपना टूटने को है डर में, अन्धेरे में और प्यास में तो
यह एक हिन्दी सपने के ही मरने की दास्तान है ।
मैं अपने आत्मा की खरोंच इसी भाषा के पानी से धो सकता हूँ
यहीं दुहरा सकता हूँ जंगल में मर रहे साथी का सन्देश
मेरी नदियों का पानी इसी भाषा में मिठास पाता है

मैं अपने माफ़ीनामे, शोकपत्र और प्रेमगीत
किसी और भाषा में लिख नहीं सकता ।

इसी भाषा में चीख़ सकता हूँ
इसी भाषा में देता हूँ गाली ।