बाशो का बचपन का नाम ‘जिन शिचरो’ था । इनके शिष्य ने केले का पौधा भेंट में दिया तो उसे रोप दिया । वहीं अपनी कुटिया भी बना ली। ‘बाशो-आन’ (केला) के नाम पर अपना नाम भी बाशो कर लिया । बाशो हाइकु को दरबारी या अन्य शब्द क्रीड़ा से बाहर लेकर आए और काव्य की वह गरिमा प्रदान की कि विश्व भर की भाषाओं में इन छन्दों को प्राथमिकता दी जाने लगी । यह घुमक्कड़ और प्रकृति प्रेमी वीतरागी सन्त कहलाए । इन्हें प्रकृति और मनुष की एक रूपता में भरोसा था । जेन दर्शन में जो क्षण की महत्त है , वह इनके काव्य का प्राण बनी । यात्रा के दौरान इनके लगभग दो ह्ज़ार शिष्य बनें , जिनमें से 300 पर्याप्त लोकप्रिय हुए । इनका मानना था कि सार्थक पाँच हाइकु लिखने वाला सच्चा कवि और दस लिखने वाला महाकवि कहलाने का हक़्दार है । इनका मानना था कि इस संसार का प्रतेक विषय हाइकु के योग्य है । एकाकीपन , सहज अभिव्यक्ति और अन्तर्दृष्टि बाशो की तीन अन्त: सलिलाएँ हैं