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मानव / मुकेश मानस


तुमने नापे कितने पर्वत
ऊँचे और विशाल
गगन चूमता जिनके भाल
और जिनकी चोटियों पे चढ़ करके
तुम हो गये उनसे भी ऊँचे

तुमने नापे कितने सागर
गहरे और असार
गहराई में जिनकी देखा
अखिल विश्व विस्तार
और हुए तब उनसे भी तुम
गहरे और अपार

तुमने काटे कितने जंगल
जो थे सघन अनंतिम
तुमने उनमें राह बनाई
घने वनों में नगर बसाकर
तुम कितने फूले इतराये

खूब बनाये बाग बगीचे
कितने सुंदर, कितने प्यारे
तरह तरह के फूल खिलाकर
तुमने जाने कुदरत के सब
रंग, रूप, रस और सुगंध
तुम उन जैसे चहके महके

ओ मानव तुम हो महान
तुम हो विशाल
पर्वत से ऊँचा भाल तुम्हारा
सागर से गहरा मन
और तुम्हारा ह्रदय भरा है
कितने ही कोमल भावों से

पर आज ये तुमने क्या कर डाला
तोपें, गन और टैंक बनाकर
गोले, एटम बम्ब बनाकर
मौत के इन सब सामानों से
अपने ही घर को भर डाला
2005