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मायके का शहर / केशव तिवारी

बेटियाँ माँ - बाप के न होने पर
मायके के शहर आती हैं

अचानक जब वो अपनी छोटी बच्ची को
शहर में अपने मित्रों की स्मृति
नाना - नानी की चिन्हारी
जो शहर से जुड़ी है, दिखा रही होती हैं

तभी कोई बूढ़ा पिता का मित्र मिलता है
खाँसता हुआ
पूछता है — तुम कब आईं, भरे गले से —
घर क्यों नही आईं ?

ये उसी घर की बात कर रहा होता है
जहाँ ये ख़ुद रात गए पहुँचता है
और बहू से नज़र बचा, रखा खाना खा
सो जाता है

ये शहर कितना अपना था कभी
वो पल - पल महसूस करती
फिर भी उदासी छुपाते

चहक - चहक दिखा रही होती है
नानी की किसी सहेली का घर
जहाँ वो कभी आती थीं जब
तुम्हारी उम्र की थी पर

साँकल खटकाने का साहस नही कर पाती
कौन होगा अब कौन पहचानेगा

वो देखती है अपना स्कूल और
पल भर को ठहर जाती है

देखती है पुराना उजड़ा पार्क
और तेज़ी से निकल जाती हैं

कई बार लगता है
ये बूढ़ा शहर उनके साथ - साथ
लकड़ी टेकते
पीछे - पीछे ख़ुद सब देखते - समझते