Last modified on 9 अक्टूबर 2022, at 00:30

माहौल / आलोक कुमार मिश्रा

घर के अंतिम कोने वाले कमरे में
उदास बैठी एक बुढ़िया
गिन रही है अपनी ख़त्म होती सांसें
सहला रही है अपने जड़ होते पैर
कुछ भी देख नहीं रहीं
शून्य में ताकती उसकी आँखें

उसी घर का बड़ा ड्राइंग रूम
गूँज रहा है कहकहों से
बुढ़िया के पोते-पोतियाँ
उनके दोस्त और माॅडर्न माँ-बाप
कर रहे हैं पार्टी
सुसज्जित माहौल और महंगे गिफ्ट
खुशियों की कर रहे हैं तस्दीक़

इधर सदियों से
एक ही लय में घूम रही धरती
न जाने क्यों
अनुभव कर रही है आज
ख़ुद को बूढ़ी
कहकहे चुभ रहे हैं उसको
माहौल दमघोंटू-सा लग रहा है।